Saturday, January 19, 2008

बन्दर बडा या कारु??

गालियों को केवल सुनकर यह अंदाजा नही लगाया जा सकता कि इनका असर किस हद तक हो सकता हैं.. यह पूरी तरह से गाली सुनने वाले के सामाजिक-राजनैतिक कद, घटनास्थल का माहौल और साथ ही गाली देने वाले की सामाजिक-राजनैतिक प्रतिष्ठा पर निर्भर करती हैं॥ पिछले कुछ दिनो कई ऐसी गालियाँ सुनाने को मिली, जिनसे देश भर का मे हंगामा सा मचा रहा॥ "मौत के सौदागर" से लेकर क्रिकेट के मैदान पर नस्लभेदी गालियों तक॥ ऐसा नही हैं कि ऐसी गालियाँ हमने पहले नही सुनी॥ किसी बस के कंडक्टर को "मौत के सौदागर" या फिर बन्दर शब्द शायद ही गाली लगे॥ उससे कितनी ही बड़ी बड़ी गालियाँ वो हर बस स्टॉप पर सुनाता हैं॥ तमाम तरह के नस्लभेदी गालियाँ हम खुद सुनते और देते रहते हैं॥ पर ऐसी गालियाँ अंतर-राष्ट्रीय तो क्या मोहल्ले के स्तर पर भी खबर नही बनती॥ स्पष्ट हैं कि महत्व गालियों का नही बल्कि उससे हुए मानहानि का होता हैं॥ साथ ही यह भी समझ मे आता हैं कि गालियाँ केवल वही शब्द नही होते जो स्त्री पुरुष के प्रजनन अंगो और सम्भोग पर आधारित होते हैं॥
शिल्पा शेट्टी के बिग ब्रदर प्रकरण के बाद १ बार फिर भारतीय टीम का ऑस्ट्रेलिया दौरा नस्लभेदी टिप्पणियों ( गालियों) की वजह से चर्चे मे रहा॥ वाकई देश से बाहर जाकर देश के नाम की या नस्ल के आधार पर गालियाँ सुनना बर्दाश्त से बाहर की बात होती हैं॥ इस तरह के भेदभाव का जितना भी हो सके विरोध होना ही चाहिए॥ महात्मा गांधी के देश मे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका मे रंगभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ी वहाँ के लोगो को इस लड़ाई को आगे badhana ही चाहिए। लेकिन रंगभेद/नस्लभेदी गालियों पर बौखालाने के साथ साथ यह तो गौर करना ही होगा कि कहीं असल मे हम भी तो रंग, नस्ल के नाम पर गालियाँ नही देते? बिहारियों और उत्तर प्रदेश वालों को "भैया", "बिहारी" की गाली दी जाती हैं। छोटे कद के पहाडी शक्ल वाले लोगो को नेपाली कहा जाता हैं। हो सकता हैं कि ये गालियाँ केवल क्षेत्रियता के आधार पर दी जाती हो, लेकिन पूरे उत्तर-पूर्व के लोगो को "चिन्की" शब्द कि गाली तो नस्ल के आधार पर ही दी जाती हैं। मंगोलियन मूल के होने की वजह से पूरे उत्तर-पुरवा निवासियों को चीन से जोडा जाता हैं॥ और ये सब्द समुदायों के वर्गीकरण के लिहाज से नही इस्तेमाल किये जाते। अन्यथा इन शब्दों को इस्तेमाल करते वक्त अपनाई जा रही भाव- भंगिमा कुछ और ही होती॥ महात्मा गांधी का ट्रेन से बाहर निकाला जाना और दलितों का मंदिर मे प्रवेश वार्हित करना दोनों ही नस्लभेद ही तो हैं।
अगर शुद्ध रंगभेद की बात की जाये तो खुद हमारे इर्द-गिर्द गोरों की श्रेष्ट प्रदर्शित की जाती हैं॥ कोई पांच रुपये मे गोरा बनाने की बात करता हैं तो कहीं पांच दिनो मे॥ कितनी लड़कियां नुमाइश मे घरेलु कैटवाक करती हुयी आती हैं और फिर अपने काले रंग की वजह से वापस चली जाती हैं। या फिर दहेज़ की रकम बड़ी की जाती हैं जिससे कि काला रंग कुछ साफ दिखने लगे। "करियथ्ठा/ करियाथ्ठी" "कारु" या "कालिया" ऐसी ही तो रंगभेदी गालियाँ हैं जो हम १ ज़माने से देते या सुनते आये हैं। सभ्यता के विकाश ने गालियों के आयाम बदले हैं। बेहतर हैं दूसरो को बदलने की नसीहत देने के साथ थोडा बहुत हम भी बदल जाएं॥

2 comments:

Dipti said...

ये सच है कि नस्लभेदी टिप्पणियां गालियों जैसी होती हैं। इनका दर्द सिर्फ़ वो जान सकता है, जो झेल रहा हैं। लेकिन, ये टिप्पणियां आपकी जाती या काम के आधार पर भी हो सकती है। जैसे की चमार या फिर गुरखा। कैसे हम सारे के सारे वॉचमैन और गार्ड को एक समान गुरखा कह देते हैं। क्या ये गाली है? कुछ शब्दों को लेकर मेरे मन में असमंजस है। ऐसा ही एक शब्द है बाई। कई जगह ये बुरा है गाली है। किसी औरत को कह दो भड़क जाती है। पता किया तो मालूम हुआ कुछ जगह बाई वेश्याओं को कहते हैं। लेकिन, हर जगह नहीं। मैं निमाड़ अंचल से हूं। हम मां को बाई कहते है। मेरी दादी को मेरे पापा बाई कहते थे। हम कई बार घर के सबसे गोरे इंसान को भूरिया कहते हैं। नाम ही भूरिया हो जाते है, कल्लू हो जाते है। तो ये क्या गालियां हुई। इसका निर्धारण कौन करेगा?

दीप्ति।

Unknown said...

गालियों का अपना संसार है. शादी-विवाह में गालियाँ न गाई जाएं तो कुछ लोगों को मजा नहीं आता.आस्ट्रेलिया में एक क्रिकेटर ने शिकायत कर दी कि भज्जी ने उसे बन्दर (मंकी) कहा. जब उसे यह बताया गया कि मंकी नहीं 'माँ की ....' गाली दी थी तो सब ठीक हो गया.