Saturday, January 3, 2009

दिप्ती की गालियां??

"दिल्ली आने के बाद कई नई बातें जानी है, समझी है, सीखी हैं। लेकिन, गालियों का जो जाल इस शहर में सुना है वो मेरे लिए बहुत बड़ा झटका है। हर वाक्य की शुरुआत बहन चो.... से और अंत भी बहन चो.... से। मन कचवा जाता है बहन चो.... बहन चो.... बहन चो.... सुन-सुनकर... दोस्तों के बीच जब ये बात कहती हूँ तो जवाब मिलता है कि अब इतना तो चलता ही है, तुम कुछ ज़्यादा ही सोफ़ेस्टीकेटेट हो। क्या बिना गालियों के बात करना सोफ़ेस्टीकेश होता है... या फिर महज सभ्य होना है... हम आखिर है क्या सभ्य लोग या फिर बहन चो....
बस स्टॉप पर -
बहन चो....आज सुबह-सुबह पाँच बजे उठना पड़ा... बहन चो....
बहन चो....रात को 2 बज गए थे साते हुए... बहन चो....
बहन चो....ये काम के चक्कर में ना कुत्ते बन गए हैं... बहन चो....

बस में ड्राइवर कन्डक्टर की बातें -
बहन चो....सवारी को ऊपर कर... बहन चो....
बहन चो....शीशे से दूरकर... बहन चो....
बहन चो....टिकिट काट... बहन चो....
बहन चो....आगे देख कितनी सवारियाँ चढ़ी हैं... बहन चो....

बस में बात करते लोग -
बहन चो....सोच रहा हूँ एक सेकेन्ड बस खरीदनी है... बहन चो....
बहन चो....सोच रहा हूँ गांव भिदवा दूँ... बहन चो....
बहन चो....कितने तक में आ जाएगी... बहन चो....
बहन चो....ये तो देखना पड़ेगा कि कैसी चाहिए... बहन चो....
बहन चो....किस कन्डीशन की चाहिए.... बहन चो....
बहन चो....फिर चलना शाम को दिखा दूँगा... बहन चो....

ऑफ़िस जाते हुए लोगों की बातचीत -
बहन चो....छुट्टी के दिन भी काम करना पड़ता है... बहन चो....
बहन चो....इतना काम दे दिया है न कि क्या बताए... बहन चो....
बहन चो....घरवाले बोलते हैं, छुट्टी लो तो कही घूमने जाए... बहन चो....
बहन चो....घरवालों को ऑफ़िस की कोई समझ ही नहीं हैं... बहन चो....

आप कोई भी भाषा बोलते हो, लोग तैयार है उसकी बहन चो.... के लिए..."

उपरोक्त बातें दिप्ती ने अपने ब्लोग (http://looseshunting.blogspot.com/)पर लिखी हैं जिससे सद्जनो को बहुत पीडा हो रही है.

क्या है दिप्ती की इन बातों में? अपने रोज की दिनचर्या मे से दो घंटों का ही तो विवरण मात्र दिया है. अपने घर से निकलने से लेकर आफ़िस पहुचने तक के दो घंटे.. समस्या ये है कि इन्होने इसे महज लोगो की बातचीत कह्कर बताया है. जबकि सच्चाई मे ये बस स्टाप पर खडे लोगो की नही, बस स्टाप पर खडे पुरुष लोगो की हैं. ड्राइवर कन्डक्टर भी पुरुष एवं ऑफ़िस जाते हुए लोग भी.. पर आश्चर्य ये है कि लोग बडी ही ढीढता के साथ ये कह रहे है कि महिलाये बराबरी पर उतरने की कोशिश कर रहीं हैं. कुछ ’लोग’ अपनी बेशर्मी को ही अपना हथियार बनाये बैठे हैं.
जापान मे लीपी के विकास के सफ़र को देखने से पता चलता है कि वहां पुरुषों ने महिलायो के लिये एक अलग सी लिपि का निर्माण कर रखा था. पुरुष कांजी इस्तेमाल करते थे एवं स्त्रियां हिरा-काना. पुरुष कांजी का इस्तेमाल कर अपने को श्रेस्ठ समझा करते थे. जापान की सामंती समाज का आलम ये है कि आज भी वहा बुराकु नाम की जातियां भारत के दलितो से भी बदतर जीवन जीने को मजबुर है. दरभंगा के मैथिल ब्राहमणों एवं अन्य लोगो की मैथिली मे बहुत अन्तर होता है.
भारतीय  समाज ने भी कुछ इसी तरह गालियों को वर्गिक्रित कर रखा है. पुरुष बहनxx की गाली दे सकते हैं तो महिलाये मोछकबरा..पढी लिखी महिलाये इडियट और डफ़र भी कह सकती है, जिनसे मुख्यतः पुरुषो को मजा आता है. ना जाने कितनी बार दिप्ती ने ही अपने पुरुष मित्रों को डफ़र कहा होगा और जिसे सुन उनके पुरुष मित्र मुसकुराते होंगे. पर शायद कभी उन्होने उन्ही मित्रो को बहनxx कहा होता तो ये उनकी दोस्ती के आखिरी दिन होते. मेरी ही कइ साथिने कई मौको पर ’ओह फ़क’ बोल जाती हैं. इनसे उनके सभ्य होने पर कभी सवाल नहीं उठते, लेकिन दिप्ती का एक कहानी कहने वाले के हैसियत से भी बहनचोद बोलना लोगो को गवांरा नही.
असल मे गालियां जो पुरुष देते हैं, अपने पुरुषार्थ को साबित करने के लिये. फ़लां की बहन xx देंगे, फ़लां की मां.. महिलायें ये गालियां उस भाव के साथ दे ही नही सकतीं. लेकिन जिस बहनचो.. की चर्चा दिप्ती कर रही हैं वो तो भावहीन है. महज पुरुषों के एकाधिकार वाली भाषा. इस बहनचो.. से न तो ड्राइवर को गुस्सा आता है ना ही कन्डक्टर को. ना ही उन यात्रियों को ना ही उन ओफ़िस जाने वाले को.. अगर गुस्सा आया तो उन लोगो को जो इन गालियों को अपन एकाधिकार मानते हैं और किसी महिला का अतिक्रमण उन्हे बर्दाश्त नही. अगर गालियां भाषा का हिस्सा नही तो फ़िर सदियों से ’लोग’ इनका इस्तेमाल कैसे करते आ रहे है. और अगर भाषा का हिस्सा है तो महिलायें क्यो नही इस्तेमाल कर सकती? ये गुस्सा ऐसा ही है जो वेदों के सुनने पर कान मे उघला शीशा डालने पर मजबुर करता है. अतिक्रमण के बिरुद्ध आया हुया गुस्सा.. यह मानते हुये कि वेदों के पढने से दलितो को कोइ भला नही हो सकता फ़िर भी हम इस भेदभाव के खिलाफ़ खडे नजर आते हैं तो फ़िर महिलायों के गालियां इस्तेमाल करने के पक्ष मे क्यों नही. सच्चाई है कि भारत का स्त्री आंदोलन दलितों के आंदोलन से भी पिछड गया है. दलित सवर्ण के विभाजन से भी पहले हुआ, स्त्री पुरुष का विभाजन आज भी अपेक्षाकृत गहरा है.

Saturday, January 19, 2008

बन्दर बडा या कारु??

गालियों को केवल सुनकर यह अंदाजा नही लगाया जा सकता कि इनका असर किस हद तक हो सकता हैं.. यह पूरी तरह से गाली सुनने वाले के सामाजिक-राजनैतिक कद, घटनास्थल का माहौल और साथ ही गाली देने वाले की सामाजिक-राजनैतिक प्रतिष्ठा पर निर्भर करती हैं॥ पिछले कुछ दिनो कई ऐसी गालियाँ सुनाने को मिली, जिनसे देश भर का मे हंगामा सा मचा रहा॥ "मौत के सौदागर" से लेकर क्रिकेट के मैदान पर नस्लभेदी गालियों तक॥ ऐसा नही हैं कि ऐसी गालियाँ हमने पहले नही सुनी॥ किसी बस के कंडक्टर को "मौत के सौदागर" या फिर बन्दर शब्द शायद ही गाली लगे॥ उससे कितनी ही बड़ी बड़ी गालियाँ वो हर बस स्टॉप पर सुनाता हैं॥ तमाम तरह के नस्लभेदी गालियाँ हम खुद सुनते और देते रहते हैं॥ पर ऐसी गालियाँ अंतर-राष्ट्रीय तो क्या मोहल्ले के स्तर पर भी खबर नही बनती॥ स्पष्ट हैं कि महत्व गालियों का नही बल्कि उससे हुए मानहानि का होता हैं॥ साथ ही यह भी समझ मे आता हैं कि गालियाँ केवल वही शब्द नही होते जो स्त्री पुरुष के प्रजनन अंगो और सम्भोग पर आधारित होते हैं॥
शिल्पा शेट्टी के बिग ब्रदर प्रकरण के बाद १ बार फिर भारतीय टीम का ऑस्ट्रेलिया दौरा नस्लभेदी टिप्पणियों ( गालियों) की वजह से चर्चे मे रहा॥ वाकई देश से बाहर जाकर देश के नाम की या नस्ल के आधार पर गालियाँ सुनना बर्दाश्त से बाहर की बात होती हैं॥ इस तरह के भेदभाव का जितना भी हो सके विरोध होना ही चाहिए॥ महात्मा गांधी के देश मे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका मे रंगभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ी वहाँ के लोगो को इस लड़ाई को आगे badhana ही चाहिए। लेकिन रंगभेद/नस्लभेदी गालियों पर बौखालाने के साथ साथ यह तो गौर करना ही होगा कि कहीं असल मे हम भी तो रंग, नस्ल के नाम पर गालियाँ नही देते? बिहारियों और उत्तर प्रदेश वालों को "भैया", "बिहारी" की गाली दी जाती हैं। छोटे कद के पहाडी शक्ल वाले लोगो को नेपाली कहा जाता हैं। हो सकता हैं कि ये गालियाँ केवल क्षेत्रियता के आधार पर दी जाती हो, लेकिन पूरे उत्तर-पूर्व के लोगो को "चिन्की" शब्द कि गाली तो नस्ल के आधार पर ही दी जाती हैं। मंगोलियन मूल के होने की वजह से पूरे उत्तर-पुरवा निवासियों को चीन से जोडा जाता हैं॥ और ये सब्द समुदायों के वर्गीकरण के लिहाज से नही इस्तेमाल किये जाते। अन्यथा इन शब्दों को इस्तेमाल करते वक्त अपनाई जा रही भाव- भंगिमा कुछ और ही होती॥ महात्मा गांधी का ट्रेन से बाहर निकाला जाना और दलितों का मंदिर मे प्रवेश वार्हित करना दोनों ही नस्लभेद ही तो हैं।
अगर शुद्ध रंगभेद की बात की जाये तो खुद हमारे इर्द-गिर्द गोरों की श्रेष्ट प्रदर्शित की जाती हैं॥ कोई पांच रुपये मे गोरा बनाने की बात करता हैं तो कहीं पांच दिनो मे॥ कितनी लड़कियां नुमाइश मे घरेलु कैटवाक करती हुयी आती हैं और फिर अपने काले रंग की वजह से वापस चली जाती हैं। या फिर दहेज़ की रकम बड़ी की जाती हैं जिससे कि काला रंग कुछ साफ दिखने लगे। "करियथ्ठा/ करियाथ्ठी" "कारु" या "कालिया" ऐसी ही तो रंगभेदी गालियाँ हैं जो हम १ ज़माने से देते या सुनते आये हैं। सभ्यता के विकाश ने गालियों के आयाम बदले हैं। बेहतर हैं दूसरो को बदलने की नसीहत देने के साथ थोडा बहुत हम भी बदल जाएं॥

Saturday, January 12, 2008

गालियाँ मजेदार होतीं हैं??

गालियाँ अक्सर मजेदार ही होती हैं॥ देने वाले को और उससे कहीं ज्यादा उन तमाम सुनाने वालों को जिन्हें लक्ष्य करकर गालियाँ नही दी गयीं होतीं। सबसे अच्छी बात तब होती हैं जब गालियों को लक्ष्यहीन बना कर दी जाये। आपके मन मे जब भी कुंठा आये या कभी किसी बात पर चिढ आये हम २ -४ गालियाँ देकर तनावमुक्त महसूस करते हैं। व्यापार मे नुकसान होने पर या ऑफिस मे बॉस की झिड़की खाने के बाद घर आकर नौकर या कहे तो अपनी पत्नी को गलियां देने के बाद मन जितना तनावमुक्त होता हैं उसकी बराबरी अन्य तरीके से नही की जा सकती॥
गालियों की उपरोक्त खासियत तो तब हैं जब गालियाँ खाने वाले के दुखी होने के कीमत पर हम तनावमुक्त होते हैं। दूसरी स्थिति मे हम गालियों के श्रोता तो होते हैं, लेकिन गालियाँ हमे लक्ष्य करके नही दी जाती। मसलन मोहल्ले मे चल रही पति-पत्नी के बीच मे गाली-गलौज॥ कुछ्लोगो का यह काम ही दुसरे लोगों को लड़वाना होता हैं जिससे कि उन्हें कुछ गालियाँ सुनने को मिल जाएँ।
इन सब से बिपरीत कभी कभी गालियाँ खाने का भी १ अलग ही मज़ा होता हैं। जैसे कि गांवों मे युवाओं का मुख्य मनोरंजन ब्रिद्ध लोगों की गालियाँ सुनकर होता हैं। बारातियों को अगर ढंग से गालियाँ न पड़े तो १ शिक़ायत सी बनी रहती हैं।
पर उनका क्या जिन्हें लक्ष्य करके गालियाँ दी जाती हैं? शायद वे लोग भी अपनी कुंठा या चिढ किसी अन्य को गालियाँ देकर निकल लेते हों। भारतीय जातीय समाज बहुत ही ईमानदारी से सबको शोषण करने का मौका देता हैं। बड़ी ही आसानी से उच्च वर्ण निम्न जातियों को और निम्न वर्ण अपने से निम्न वर्ण के जातियों को गाली देकर कुंठा मुक्त हो सकते हैं॥ स्त्रियों का भी इस कुंठा मुक्त समाज के निर्वाण मे महत्ती भूमिका हैं। सद्जनो की पीडा इस बात से कम हो सकती हैं कि आज तक ढोल, गंवार, क्षुद्र, पशु, नारी गालियाँ खाकर भी समाज का नींव बने हुए हैं॥

Thursday, January 10, 2008

क्या हमने कभी माँ की गाली खाई हैं??

गालियों के उत्पति के संदर्भ में यही कहा जा सकता हैं कि भाषा के शुरुआत में ही गालियों का जन्म हुआ होगा॥ आज जब भी हम कोई नयी भाषा सिखने कि शुरुआत करते हैं, अनायास ही "I Love you" और गालियों की तरफ सबसे पहले आकर्षित होते हैं॥ विचारो के आदान प्रदान में अपने गुस्से को प्रदर्शित करने के लिए गालियों का जन्म हुआ होगा... भले ही गालियों के मौजूदा स्वरूप से अंतर रहा हो॥ ये अंतर मनुष्यों के दुसरे मनुष्यों के बीच रहे संबंधो या सम्पति के अवाधारना पर आधारित रहे होंगे॥
गालियों के मौजूदा स्वरूप से ऐसा लगता हैं कि गालियाँ दूसरो कि सम्पति पर अनधिकृत अधिकारों को प्रदर्शित करती हैं॥ मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में सबसे बड़ी सम्पति स्त्रीधन माना जाता हैं॥ शायद इसीलिए अधिकतर गालियाँ स्त्रियों को लक्ष्य करके बनाईं जाती हैं॥ उदाहरण के लिए "साला" शब्द के पीछे किसी की बहन के साथ सम्भोग करने का अर्थ छिपा होता हैं॥ चूँकि १ बहन उसके भाई की सम्पति होती हैं, उसके ऊपर किसी दुसरे के अनधिकृत अधिकार से वह भाई चिढ सा जाता हैं॥ अनधिकृत इसलिए कि जब उसी बहन कीसमाज से स्वीकृति पाकर किसी के साथ शादी करती हैं तो तो यही "साला" शब्द १ रिश्ते के प्रतीक के रुप में तब्दील हो जाता हैं। बहन के किसी के साथ सम्भोग करने का अर्थ यहाँ भी छिपा हैं॥ लेकिन यह गाली का प्रतीक नही होता॥ बिल्कुल इसी तरह से बहनxx या मादरxx के संदर्भ में भी कहा जा सकता हैं॥
भाषाई समाज के शुरुआत में शायद स्त्रियों की सामाजिक स्थिति यह ना रही हो, पर तब गालियों का स्वरूप भी कुछ और रहा हो। हममे से हर कोई अपनी माँ के सम्भोग्रत होने के बाद ही सांसे ली हैं। लेकिन कोई भी अपनी माँ के सिवाय अपने पिता के संबधो को आसानी से स्वीकार नही कर सकता॥ इसीलिए किसी के अहम को ठेस पहुचाने के लिए माँ या बहन की गाली आसानी से इस्तेमाल कर ली जाती हैं॥ मुख्यतया इन गालियों से पुरुषत्व को चुनौती दी जाती हैं॥ महिलायों की कुछ गालियों से इन बातो को आसानी से समझा जा सकता हैं॥ जैसे निर्वंसा, मोछ्कबरा इत्यादी॥
मेरे कुछ दोस्तो का कहना हैं कि स्त्रियाँ और माँ अलग होतीं हैं। मातृत्व को सम्पति के साथ नही जोडा जा सकता। पर मेरा तो मानना हैं दोस्त कि पुरुष अपनी सबसे बड़ी सम्पति माँ को ही मानता हैं॥ बहन फिर भी ग़ैर की पत्नी बन जाती हैं। लेकिन माँ पत्नी भी उसके अपने पिता की ही होती हैं॥ आपको शायद याद होगा, "मेरे पास गाड़ी हैं बंगला हैं बैंक बैलेंस हैं, तुम्हारे पास क्या हैं??" जवाब में १ शब्द ही सारे सम्पति के अधिकार को धराशायी कर देता हैं कि "मेरे पास माँ हैं"

Tuesday, January 8, 2008

परिचय

छी छी गलियां?? ये कैसा ब्लोग बना डाला ?? कितना गन्दा हैं इसे पढ़ना... आप में से कुछ शायद ऐसा ही कहें,, कुछेक लोग गालियाँ भी दें कि साले कैसे कैसे लोग आ जाते हैं॥ पूरे चिटठा जगत को बर्बाद करने... पर दोस्तो यह हकीकत हैं...सबसे ज्याद आज की कड़वाहट से भरी जिन्दगी में अगर किसी चिह का इस्तेमाल करते हैं तो वो यही हैं॥ और इसीलिए मुझे लगता हैं कि अंतर्जाल की दुनिया में १ ब्लोग इन गालियों को भी समर्पित होना चाहिऐ॥ ये गलियां वही शब्द हैं जो बाहर निकलकर हमारी कड़वाहट को कम कर डालते हैं...इनके कुछ साइड इफेक्ट भी हैं पर यह तो उसके इस्तेमाल पर निर्भर करता हैं...बिल्कुल दुसरे अन्य चीजो की तरह... ऐसा भी नही कि आपके बच्चे इसे पढ़कर बिगड़ जाएँ... याद कीजिए, हमने कभी भी इन्हें सिलेबस की किताबो मी नही पढ़... ये ऐसे भी शब्द नही जिन्हें हमारे माता पिता ने सिखलाया हो॥ हिन्दी भाषा के इतिहास में शायद गालियाँ पिधियाँ दर पिधियाँ मौखिक परंपरा का ही निर्वहन करती आई हैं...अंत मी हम देखेंगे कि लगभग सभी गालियाँ किसी १ लिंग को ही लक्ष्य करके बनायीं हैं॥ खैर आइये हम अपनी भड़ास यहाँ निकाले॥ किसी और को देने से बेहतर हैं कि हम यह सभी के साथ मिल बांटे ...

आइये आप भी अपना योगदान दें...आपने अक्सर गलियां दी होंगी॥ कितने भी कायर या "सभ्य" हों मन मी गालियाँ देने से आपको कोई नही रोक सकता... नही तो फिर आपने कहीं सुनी होंगी... अपने जीवन के बेहतरीन या अद्भुत गालियों को हामरे पास लिख भेजे... पता हैं॥ jeetujnu@gmail.com